Saturday, October 23, 2010

Let us celebrate Diwali with gaiety & devotion on he 5th of November 2010.!

Bishwanath Singh :
It is a very thoughtful note worth reading times & again.One can see my write-up on Diwali on my Profile Page that was flashed today on the f.b..


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From the album: दीपावली-महापर्व


By Poonam Matia

दीपावली-महापर्व


दीपावली-महापर्व (पार्ट -१) तमसो माऽ ज्योतिर्गमय अर्थात् ‘अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर
दीपावली अथवा दिवाली प्रकाश उत्सअव है, जो सत्यक की जीत व आध्याात्मिक अज्ञान को दूर करने का प्रतीक है। शब्दे "दीपावली" का शाब्दिक अर्थ है दीपों (मिट्टी के दीप) की पंक्तियां। य...ह हिंदू कलेन्ड र का एक बहुत लोकप्रिय त्यौदहार है। यह पर्व सामूहिक व व्यक्तिगत दोनों तरह से मनाए जाने वाला ऐसा विशिष्ट पर्व है जो धार्मिक, सांस्कृतिक व सामाजिक विशिष्टता रखता है। यह कार्तिक के 15वें दिन (अक्तूोबर/नवम्बेर) में मनाया जाता है। दशहरे के 20 दिन बाद आता है
पर दशहरे के पश्चात ही इस महापर्व की तैयारियाँ आरंभ हो जाती है। अंधकार पर प्रकाश के विजय का पर्व दीपावली एक नहीं बल्कि पांच दिनों का त्योहार है, इसलिए इसे महापर्व कहा जाता है। यह कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से शुरू होकर कार्तिक शुल्क द्वितीया को संपन्न होता है। ये पांचों पर्व जीवन में धन, स्वास्थ्य, यश, आयु और उमंग प्रदान करते हैं। धनतेरस दिवाली का शुभारंभ कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष त्रयोदशी के दिन से होता है। यह दिन देवताओं के वैद्य धन्वंतरि के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन सागर मंथन के उपरांत ऋषि धन्वंतरि हाथों में अमृत का कलश लेकर प्रकट हुए थे। धन्वंतरि के साथ ही इस दिन धन के देवता कुबेर व मृत्यु के देवता यमराज की भी पूजा की जाती है। ब्रह्मा जी ने कहा है कि त्रयोदशी के दिन यमराज को दीप व नैवेद्य समर्पित करने से अकाल मृत्यु नहीं होती है। धनतेरस के दिन चांदी खरदीने के पीछे भी मान्यता है कि ये पूरे वर्ष घर में धन-धान्य की वृद्धि होती है और चंद्रमा का प्रतीक है जो शीतलता प्रदान करता है। और मन में संतोष रूपी धन का वास होता है। इस दिन घर के आंगन में यम देवता के नाम पर दीप जलाने का भी परंपरा है। इस दिन घर के द्वार पर तुलसी भी रखी जाती है । ये भी कहा जाता है कि इस अवसर पर धनिया के बीज खरीद कर भी लोग घर में रखते हैं।दिवाली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं। कथा : धनतेरस पर यमराज की एक कथा बहुत प्रचलित है। पुराने जमाने में एक राजा हुए थे राजा हिम। उनके यहां एक पुत्र हुआ, तो उसकी जन्म-कुंडली बनाई गई। ज्योतिषियों ने कहा कि राजकुमार अपनी शादी के चौथे दिन सांप के काटने से मर जाएगा। इस पर राजा चिंतित रहने लगे। जब राजकुमार की उम्र 16 साल की हुई, तो उसकी शादी एक सुंदर, सुशील और समझदार राजकुमारी से कर दी गई। राजकुमारी मां लक्ष्मी की बड़ी भक्त थीं। राजकुमारी को भी अपने पति पर आने वाली विपत्ति के विषय में पता चल गया।राजकुमारी काफी दृढ़ इच्छाशक्ति वाली थीं। उसने चौथे दिन का इंतजार पूरी तैयारी के साथ किया। जिस रास्ते से सांप के आने की आशंका थी, वहां सोने-चांदी के सिक्के और हीरे-जवाहरात आदि बिछा दिए गए। पूरे घर को रोशनी से जगमगा दिया गया। कोई भी कोना खाली नहीं छोड़ा गया यानी सांप के आने के लिए कमरे में कोई रास्ता अंधेरा नहीं छोड़ा गया। इतना ही नहीं, राजकुमारी ने अपने पति को जगाए रखने के लिए उसे पहले कहानी सुनाई और फिर गीत गाने लगी।इसी दौरान जब मृत्यु के देवता यमराज ने सांप का रूप धारण करके कमरे में प्रवेश करने की कोशिश की, तो रोशनी की वजह से उनकी आंखें चुंधिया गईं। इस कारण सांप दूसरा रास्ता खोजने लगा और रेंगते हुए उस जगह पहुंच गया, जहां सोने तथा चांदी के सिक्के रखे हुए थे। डसने का मौका न मिलता देख, विषधर भी वहीं कुंडली लगाकर बैठ गया और राजकुमारी के गाने सुनने लगा। इसी बीच सूर्य देव ने दस्तक दी, यानी सुबह हो गई। यम देवता वापस जा चुके थे। इस तरह राजकुमारी ने अपनी पति को मौत के पंजे में पहुंचने से पहले ही छुड़ा लिया। यह घटना जिस दिन घटी थी, वह धनतेरस का दिन था, इसलिए इस दिन को ‘यमदीपदान’ भी कहते हैं। भक्तजन इसी कारण धनतेरस की पूरी रात रोशनी करते हैं
नरक चतुर्दशी/छोटी दीपावली कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष चौदस के दिन को नरक चौदस और छोटी दीपावली भी कहते हैं। देश के कई भागों में हनुमानजी का जन्मदिन भी इसी दिन मनाया जाता है। इस दिन हनुमान जी की पूजा शुभ फलदायी होती है। कथा : एक दंत-कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने इसी दिन नरकासुर राक्षस का वध कर उसके कारागार से 16,000 कन्याओं को मुक्त कराया था और उन्हें अखंड सौभाग्य का दान दिया था। इस दिन एक पुराने दीपक में सरसों का तेल व पाँच अन्न के दाने डाल कर इसे घर की नाली ओर जलाकर रखा जाता है। यह दीपक यम दीपक कहलाता है। दीपावली कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष अमावस्या को भगवान श्रीराम रावण का वध करके चौदह वर्ष के बाद अयोध्या वापस आए थे। अयोध्यावासियों का ह्रदय अपने परम प्रिय राजा के आगमन से उल्लासित था। श्री राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीए जलाए । कार्तिक मास की सघन काली अमावस्या की वह रात्रि दीयों की रोशनी से जगमगा उठी। तब से आज तक भारतीय प्रति वर्ष यह प्रकाश-पर्व हर्ष व उल्लास से मनाते हैं। आगे जारी है ...............

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दीपावली-महापर्व (पार्ट -२)

कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष अमावस्या को भगवान श्रीराम रावण का वध करके चौदह वर्ष के बाद अयोध्या वापस आए थे। अयोध्यावासियों का ह्रदय अपने परम प्रिय राजा के आगमन से उल्लासित था। श्री राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीए जलाए । कार्तिक मास की सघन काली अमावस्या की वह रात्रि दीयों की रोशनी से जगमगा उठी। तब से आज तक भारतीय प्रति वर्ष यह प्रकाश-पर्व हर्ष व उल्लास से मनाते हैं।

दिवाली भारत में बसे कई समुदायों में भिन्न कारणों से प्रचलित है। दीपक जलाने की प्रथा के पीछे अलग-अलग कारण या कहानियाँ हैं।

राम भक्तों के अनुसार दिवाली वाले दिन अयोध्या के राजा राम लंका के अत्याचारी राजा रावण का वध कर के अयोध्या लौटे थे। उनके लौटने की खुशी यह पर्व मनाया जाने लगा।

कृष्ण भक्तिधारा के लोगों की मान्यता है कि इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था। इस नृशंस राक्षस के वध से जनता में अपार हर्ष फैल गया और लोगों ने प्रसन्नतापूर्वक घी के दीये जलाए।

एक पौराणिक कथा के अनुसार विष्णु ने नरसिंह रुप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था तथा इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात देवी लक्ष्मी व भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए।

जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस भी दीपावली को ही हुआ था।

बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध के अनुयायियों ने 2500 वर्ष पूर्व गौतम बुद्ध के स्वागत में लाखों दीप जला कर दीपावली मनाई थी।

सिक्खों के लिए भी दिवाली महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था और दिवाली ही के दिन सिक्खों के छ्टे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को कारागार से रिहा किया गया था।

पंजाब में जन्मे स्वामी रामतीर्थ का जन्म व महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ। इन्होंने दीपावली के दिन गंगातट पर स्नान करते समय 'ओम' कहते हुए समाधि ले ली।

महर्षि दयानन्द ने भारतीय संस्कृति के महान जननायक बनकर दीपावली के दिन अजमेर के निकट अवसान लिया। इन्होंने आर्य समाज की स्थापना की।

कृषक वर्ग के लिये इस पर्व का विशेष महत्त्व है। खरीफ़ की फसल पक कर तैयार हो जाने से कृषकों के खलिहान समृद्ध हो जाते हैं। कृषक समाज अपनी समृद्धि का यह पर्व उल्लासपूर्वक मनाता हैं।

पश्चिमी बंगाल में यह त्यौहार काली पूजा के रूप में मनाया जाता है। काली(शिवजी की पत्नी) की पूजा दीवाली के अवसर पर की जाती है।

दक्षिण में, दीपावली त्यौहार अक्सर नरकासुर, जो असम का एक शक्तिशाली राजा था, और जिसने हजारों निवासियों को कैद कर लिया था, पर विजय की स्मृति में मनाया जाता है। ये श्री कृष्ण ही थे, जिन्होंने अंत में नरकासुर का दमन किया व कैदियों को स्वतंत्रता दिलाई। इस घटना की स्मृति में प्रायद्वीपीय भारत के लोग सूर्योदय से पहले उठ जाते हैं, व कुमकुम अथवा हल्दी के तेल में मिलाकर नकली रक्त बनाते हैं। राक्षस के प्रतीक के रूप में एक कड़वे फल को अपने पैरों से कुचलकर वे विजयोल्लास के साथ रक्त को अपने मस्तक के अग्रभाग पर लगाते हैं। तब वे धर्म-विधि के साथ तैल स्नान करते हैं, स्वयं पर चन्दन का टीका लगाते हैं। मन्दिरों में पूजा अर्चना के बाद फलों व बहुत सी मिठाइयों के साथ बड़े पैमाने पर परिवार का जलपान होता है

इसी दिन भगवान विष्णु ने वामन रूप में महादानी राजा बलि के दान की परीक्षा ली थी।

नेपालियों के लिए यह त्योहार इसलिए महान है क्योंकि इस दिन से नेपाल संवत में नया वर्ष आरम्भ होता है।

दीन-ए-इलाही के प्रवर्तक मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में दौलतखाने के सामने ४० गज ऊँचे बाँस पर एक बड़ा आकाशदीप दीपावली के दिन लटकाया जाता था। बादशाह जहाँगीर, बहादुर शाह जफर और शाह आलम द्वितीय के समय में समूचे शाही महल को दीपों से सजाया जाता था एवं लालकिले में आयोजित कार्यक्रमों में हिन्दू-मुसलमान दोनों भाग लेते थे।



दीपावली-पूजा



दीपावली मनाने के कारण कुछ भी रहे हों परंतु यह निश्चित है कि यह वस्तुत: दीपोत्सव है। कई सप्ताह पूर्व ही दीपावली की तैयारियाँ आरंभ हो जाती है। लोग अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई का कार्य आरंभ कर देते हैं। घरों में मरम्मत, रंग-रोगन,सफ़ेदी आदि का कार्य होने लगता हैं। लोग दुकानों को भी साफ़ सुथरा का सजाते हैं। बाज़ारों में गलियों को भी सुनहरी झंडियों से सजाया जाता है। दीपावली से पहले ही घर-मोहल्ले, बाज़ार सब साफ-सुथरे व सजे-धजे नज़र आते हैं
इस दिन घरों में सुबह से ही तरह-तरह के पकवान बनाए जाते हैं। बाज़ारों में खील-बताशे, मिठाइयाँ ,खांड के खिलौने, लक्ष्मी-गणेश आदि की मूर्तियाँ बिकने लगती हैं
स्थान-स्थान पर आतिशबाजी और पटाखों की दूकानें सजी होती हैं। कई दिन पहले से ही लोग रिश्तेदारों, मित्रों, सगे-संबंधियों के घर मिठाइयाँ व उपहार बाँटने लगते हैं।

बड़ी दीवाली के दिन घर के बाहर एवं भीतर रोशनी की जाती है क्योंकि मां लक्ष्मी पूरे घर में और घर के बाहर भ्रमण करती हैं। घर के द्वार पर फूलों या रंगों से सुदर रंगोली बनाई जाती है
कुछ लोग चरण-चिन्ह भी बनाते हैं जिनकी दिशा घर की ओर होती है
आज-कल तो बाज़ार तरह-तरह की रंगीन और संगीतमय लाइटों से भरे रहतें हैं
शाम के समय भगवान गणेश, माता लक्ष्मी व माता सरस्वती की पूजा करना, पूरे वर्ष के लिए मंगलकारी सिद्ध होता है। लक्ष्मीजी के स्वागत की तैयारी में घर की सफाई करके दीवार को चूने अथवा गेरू से पोतकर लक्ष्मीजी का चित्र बनाते हैं(लक्ष्मी-गणेश का फोटो या मूर्ति भी लगाया जा सकता है।) लक्ष्मीजी के चित्र के सामने एक चौकी रखकर उस पर मौली बाँधें। इस पर गणेशजी की मिट्टी की मूर्ति स्थापित करें।फिर गणेशजी को तिलक कर पूजा करें।अब चौकी पर छः चौमुखे व 26 छोटे दीपक रखें।इनमें तेल-बत्ती डालकर जलाएं। फिर जल, मौली, चावल, फल, गुढ़, अबीर, गुलाल, धूप आदि से विधिवत पूजन करें। मकान और दूकान के आकार हटड़ी भी पूजा मैं रखी जाती है
पूजा में सोने-चांदी के सिक्के, रूपए, आभूषण इत्यादि रखना शुभ माना जाता है। चार मुंह वाला दीपक जरूर जलाना चाहिए। ऐसी मान्यता है कि इससे चारों दिशाओं में प्रकाश फैलता है। दरवाजे पर, तुलसी के पौधे के पास, रसोई घर, पानी के पास दीपक प्रज्जवलित करना चाहिये। कच्चे दूध, दही, शहद, तुलसी और गंगाजल से बना चरणामृत , मिठाई, फल, रोली, मौली, लौंग, पान, कपूर, अगरबत्ती, चावल, गुड़, धनिया, यज्ञोपवीत, शुद्धजल, सफेद वस्त्र, , चांदी या सोने के सिक्के आदि रखें। इस दिन लक्ष्मी जी को लाल रंग के कमल के फूल चढाना विशेष रूप से शुभ फलदायी होता है। दीपावली के दिन दक्षिणावर्ती शंख का पूजन अत्यंत शुभ माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस शंख की उत्पत्ति समुद्र मंथन से हुई है। शंख पूजन से लक्ष्मी जी प्रसन्न होती हैं। इस दिन शंख पर अनामिका अंगुली से पीला चंदन लगाकर पीले पुष्प अर्पित करके और पीले रंग के नैवेद्य का ही भोग लगाना चाहिए। इससे परिवार में स्वास्थ्य और समृद्धि बनी रहती है।परिवार के सब सदस्य मिलकर महा लक्ष्मी ,गणेश और श्री राम की आरती करें
बड़े-बुजुर्गों के चरणों की वंदना करें। तत्पश्चात इच्छानुसार घर की बहू-बेटियों को आशीष और उपहार दें। दीपकों का काजल सभी स्त्री-पुरुष आँखों में लगाएं।

इस पूजन के पश्चात तिजोरी में गणेशजी तथा लक्ष्मीजी की मूर्ति रखकर विधिवत पूजा करें। पूजा के बाद एक-एक दीपक घर के कोनों में जलाकर रखें। व्यावसायिक प्रतिष्ठान, गद्दी की भी विधिपूर्वक पूजा करें। पूजा के बाद लोग अपने-अपने घरों के बाहर दीपक व मोमबत्तियाँ जलाकर रखते हैं। चारों ओर चमकते दीपक अत्यंत सुंदर दिखाई देते हैं। इस रोज रंग-बिरंगी फुलझड़ियाँ, आतिशबाज़ियाँ व अनारों के जलने का आनंद प्रत्येक आयु के लोग लेते हैं। दीपावली के दूसरे दिन व्यापारी अपने पुराने बहीखाते बदल देते हैं। वे दूकानों पर लक्ष्मी पूजन करते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से धन की देवी लक्ष्मी की उन पर विशेष अनुकंपा रहेगी।

लक्ष्मी पूजन रात के बारह बजे करने का विशेष महत्व है। रात को बारह बजे दीपावली पूजन के उपरान्त चूने या गेरू में रुई भिगोकर चक्की, चूल्हा, सिल्ल, लोढ़ा तथा छाज (सूप) पर कंकू से तिलक करें। (हालांकि आजकल घरों मे ये सभी चीजें मौजूद नहीं है लेकिन भारत के गाँवों में और छोटे कस्बों में आज भी इन सभी चीजों का विशेष महत्व है क्योंकि जीवन और भोजन का आधार ये ही हैं)

दूसरे दिन प्रातःकाल चार बजे उठकर पुराने छाज में कूड़ा रखकर उसे दूर फेंकने के लिए ले जाते समय कहें 'लक्ष्मी-लक्ष्मी आओ, दरिद्र-दरिद्र जाओ'।


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दीपावली महापर्व



गोवर्धन पूजा/ अन्नकूट

दिवाली के पश्चात अन्नकूट मनाया जाता है। यह दिवाली की श्रृंखला में चौथा उत्सव होता है। लोग इस दिन विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर गोवर्धन की पूजा करते हैं। इसी दिन लोग अपने गाय-बैलों को सजाते हैं तथा गोबर का पर्वत बनाकर पूजा करते हैं। इस पर रूई और करवे की सीकें लगाकर पूजा की जाती है। गोबर पर खील, बताशा और शक्कर के खिलौने चढ़ाये जाते हैं। अन्नकूट पूजा में भगवान विष्णु अथवा उनके अवतार और अपने इष्ट देवता का इस दिन विभिन्न प्रकार के पकवान बनाकर पूजन किया जाता हैं। इसे छप्पन भोग की संज्ञा भी दी गई हैं।

कथा : गोवर्धन पर्वत की पूजा के बारे में एक कहानी कही जाती है। भगवान कृष्ण अपनी गोपियों और ग्वालों के संग गाएं चराते हुए गोवर्धन पर्वत पर पहुंचे तो देखा कि वहां गोपियां 56 प्रकार के भोजन रखकर बड़े उत्साह से नाच-गाकर उत्सव मना रही हैं। श्रीकृष्ण के पूछने पर उन्होंने बताया कि आज वृत्रासुर को मारने वाले तथा मेघों व देवों के स्वामी इंद्र का पूजन होता है। इसे इंद्रोज यज्ञ कहते हैं। इससे प्रसन्न होकर ब्रज में वर्षा होती है, अन्न पैदा होता है। श्रीकृष्ण ने कहा कि इंद्र में क्या शक्ति है, उससे अधिक शक्तिशाली तो हमारा गोवर्धन पर्वत है। इसके कारण वर्षा होती है। हमें इंद्र की नहीं बल्कि गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए। श्रीकृष्ण की यह बात ब्रजवासियों ने मानी और गोवर्धन पूजा की तैयारियां शुरू हो गई। सभी गोप-ग्वाल अपने अपने घरों से पकवान लाकर गोवर्धन की तराई में श्रीकृष्ण द्वारा बताई विधि से पूजन करने लगे। नारद मुनि भी यहां इंद्रोज यज्ञ देखने पहुंच गए थे। इंद्रोज बंदकर के बलवान गोवर्धन की पूजा ब्रजवासी कर रहे हैं यह बात इंद्र तक नारद मुनि द्वारा पहुंच गई और इंद्र को नारद मुनि ने यह कहकर और डरा भी दिया कि उनके राज्य पर आक्रमण करके इंद्रासन पर भी अधिकार शायद श्रीकृष्ण कर लें। इंद्र गुस्सा गये और मेघों को आज्ञा दी कि वे गोकुल में जा कर प्रलय पैदा कर दें। ब्रजभूमि में मूसलाधार बारिश होने लगी। सभी भयभीत हो उठे। सभी ग्वाले श्रीकृष्ण की शरण में पहुंचते ही उन्होंने सभी को गोवर्धन पर्वत की शरण में चलने को कहा। वही सब की रक्षा करेंगे। जब सब गोवर्धन पर्वत की तराई मे पहुंचे तो श्रीकृष्ण ने गोवर्धन को अपनी कनिष्का अंगुली पर उठाकर छाता सा तान दिया और सभी की मूसलाधार हो रही बारिश से बचाया। ब्रजवासियों पर एक बूंद भी जल नहीं गिरा। यह चमत्कार देखकर इंद्रदेव को अपनी की गलती का अहसास हुआ और वे श्रीकृष्ण से क्षमायाचना करने लगे। सात दिन बाद श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत नीचे रखा और ब्रजवासियों को प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा और अन्नकूट का पर्व मनाने को कहा। तभी से यह पर्व के रूप में प्रचलित है


मथुरा-वृंदावन सहित पूरे ब्रज क्षेत्र में यह उत्सव बहुत धूमधाम से मनाया जाता है और भगवान को छप्पन भोग का नैवेद्य चढाया जाता है। इस दिन मौसम की सब फल-सब्जियां खासकर मूली-बेगुन आदि मिलकर सब्जी बनायी जाती है इसके साथ खीर, कढ़ी-चावल भी बनाने का प्रचलन है


गांव-गांव में पशु पालक और किसान गोवर्धन पूजा करते हैं। पशुओं को नहला-धुलाकर उन्हें सजाया जाता है।



भइया दूज

यम द्वितीया या भाई-दूज या भैयादूज का पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया अर्थात कार्तिक महीने के उजले-पाख के दूसरे दिन मनाया जाता है। उत्तर और मध्य भारत में यह पर्व भातृ-द्वितीया अर्थार्त 'भैयादूज' के नामक से जाना जाता है, पूर्व में 'भाई-कोटा', पश्चिम में 'भाईबीज' और 'भाऊबीज' कहलाता है। मान्यता है कि यदि इस दिन भाई और बहन यमुना में स्नान करें तो यमराज निकट नहीं फटकता।

कथा: सूर्य भगवान की स्त्री का नाम संज्ञा देवी था। इनकी दो संतानें, पुत्र यमराज तथा कन्या यमुना थी। संज्ञा देवी पति सूर्य की उद्दीप्त किरणों को न सह सकने के कारण उत्तरी ध्रुव प्रदेश में छाया बन कर रहने लगीं। उसी छाया से ताप्ती नदी तथा शनीचर का जन्म हुआ। इधर छाया का यम तथा यमुना से विमाता सा व्यवहार होने लगा। इससे खिन्न होकर यम ने अपनी एक नई नगरी यमपुरी बसाई, यमपुरी में पापियों को दण्ड देने का कार्य सम्पादित करते भाई को देखकर यमुनाजी गो लोक चली आईं जो कि कृष्णावतार के समय भी थी।

यमुना अपने भाई यमराज से बडा स्नेह करती थी। वह उससे बराबर निवेदन करती कि वह उसके घर आकर भोजन करें। लेकिन यमराज अपने काम में व्यस्त रहने के कारण यमुना की बात को टाल जाते थ। बहुत समय व्यतीत हो जाने पर एक दिन सहसा यम को अपनी बहन की याद आई। उन्होंने दूतों को भेजकर यमुना की खोज करवाई, मगर वह मिल न सकीं। फिर यमराज स्वयं ही गोलोक गए जहाँ विश्राम घाट पर यमुनाजी से भेंट हुई। भाई को देखते ही यमुनाजी ने हर्ष विभोर होकर उनका स्वागत सत्कार किया तथा उन्हें भोजन करवाया। इससे प्रसन्न हो यम ने वर माँगने को कहा –

यमुना ने कहा – हे भइया मैं आपसे यह वरदान माँगना चाहती हूँ कि मेरे जल में स्नान करने वाले नर-नारी यमपुरी न जाएँ।

प्रश्न बड़ा कठिन था, यम के ऐसा वर देने से यमपुरी का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता। भाई को असमंजस में देख कर यमुना बोलीं – आप चिंता न करें मुझे यह वरदान दें कि जो लोग आज के दिन बहन के यहाँ भोजन करके, इस मथुरानगरी स्थित विश्राम घाट पर स्नान करें वे तुम्हारे लोक को न जाएँ। इसे यमराज ने स्वीकार कर लिया। उन्होंने बहन यमुनाजी को आश्वासन दिया – ‘इस तिथि को जो सज्जन अपनी बहन के घर भोजन नहीं करेंगे उन्हें मैं बाँधकर यमपुरी ले जाऊँगा और तुम्हारे जल में स्नान करने वालों को स्वर्ग होगा।’ तभी से यह त्यौहार मनाया जाता है


बदलते हुए समय को देखें तो यह व्यस्त जीवन में दो परिवारों को मिलने और साथ समय बिताने का सर्वोत्तम उपाय है। ऐसा कहा गया है कि यदि अपनी सगी बहन न हो तो पिता के भाई की कन्या, मामा की पुत्री, मौसी अथवा बुआ की बेटी – ये भी बहन के समान हैं, इनके हाथ का बना भोजन करें। जो पुरुष यमद्वितीया को बहन के हाथ का भोजन करता है, उसे धन, आयुष्य, धर्म, अर्थ और अपरिमित सुख की प्राप्ति होती है।




सभी को शुभ -दीपावली
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